कविता बस उसे देखती ही रही और जय भी उसे ही देखता रहा। कविता ने खुद को चादर से ढक लिया और मोबाइल बन्द कर दिया। जय फिर भी उसे देखता रहा और मूठ मारता रहा। कविता की आंखों में शर्म तैर रही थी, पर नज़रें बेबाक हो अपने भाई को देखती रही। कविता को देखते हुए जय ने उसे एक बार इशारा किया कि दरवाज़ा खोलो। और वो खिड़की से अपने रूम में दाखिल हो कर कविता के दरवाजे पर खड़ा हो गया। कविता की हिम्मत नही हुई कि दरवाज़ा खोले पर जय दरवाज़ा पर से हल्के आवाज़ में ही आवाज़ लगाता रहा कि कविता दीदी दरवाज़ा खोलो। ताकि ममता ना उठ जाए। कविता ने कोई जवाब नही दिया, पर जय लगातार वही खड़ा रहा। कविता को काटो तो खून नही, और हो भी क्यों ना उसके सगे भाई ने उसे नंगी खीरा बुर में घुसाकर मूठ मारते हुए देखा था। करीब 15 मिनट तक ऐसा ही चला।
उधर जय को लगा कि अब कविता दरवाज़ा नहीं खोलेगी , वो निराश हो गया। पर तभी अंदर से छिटकनि खुलने की आवाज़ आयी।
जय ने दरवाज़ा को धक्का दिया , तो देखा कविता अपने बिस्तर पर बैठी थी चादर लपेट कर। कविता को कुछ समझ नही आया था इसीलिए उसने कपड़े नहीं पहने थे। जय ने दरवाज़ा बंद कर दिया और अपनी बहन के पास गया। उसने कविता के चेहरे को ठुड्ढी से पकड़कर ऊपर उठाया, कविता अपने नाखून चबा रही थी। उसने जय की ओर देखा जय ने भी उसे देखा। फिर जय ने बगल से मोबाइल उठाया स्क्रीन लॉक खोला और देखा तो फिर से ब्लू फिल्म चालू हो गयी। उसमे दो लड़के बारी बारी से एक लड़की को चोद रहे थे। उसने उसे चालू ही छोड़ दिया और कविता की आंखों में देखा जैसे पूछ रहा हो कि हमारी दीदी ये सब तुम भी करती हो? कविता अभी तक अपने नाखून चबा रही थी और जय को देखते हुए उसके आंखों के पूछे सवाल का मानो जवाब दे रही थी कि आखिर मेरी उम्र की लड़कियां माँ बन गयी हैं तो क्या मैं ये सब भी नही कर सकती।
कविता की आंखों में शर्म जरूर थी पर पश्चाताप नहीं।
कविता की अभी ताज़ी उतारी हुई पैंटी जो कि कविता के पैरों के नीचे फर्श पर पड़ी हुई थी, को जय ने उठाया और सूँघा, उसपर जैसे काम वासना सवार हो गयी। कविता सब देख रही थी पर कुछ बोली नहीं। कविता के बुर के रस से सरोबार थी वो कच्छी। जय ने फिर अपनी बॉक्सर उतार दी, उसने अंदर कुछ नही पहना हुआ था। उसका करीब आठ इंच का तना हुआ लण्ड बाहर आ गया। उसने कविता की कच्छी को अपने लण्ड पर फंसा लिया।
कविता ने कुछ नही कहा बस जय से आंखों का संपर्क तोड़कर उसके लण्ड को देखने लगी। बिल्कुल मस्त फूला हुआ सुपाड़ा था, मोटाई भी कोई 3 इंच की रही होगी। कविता के हाँथ अनायास ही लण्ड की ओर बढ़ गए। वो उसे छूने ही वाली थी कि जय ने उसका हाथ पकड़कर अपने लण्ड पर रख लिया। कविता ने उसका लौड़ा पकड़ के महसूस किया और जय की आंखों में देखा। कविता मानो कह रही हो कि उसका लौड़ा बहुत तगड़ा है। हालांकि उसने इतने करीब से किसी का भी तना हुआ लौड़ा नहीं देखा था। वो अपने दाये हाथ के नाखून अभी भी चबा रही थी।
जय ने कविता के चादर को हटाना चाहा तो कविता ने उसे झट से एक थप्पड़ मारा। पर जय ने इसका बुरा नहीं माना।
उसने फिर कोशिश की कविता ने उसका हाथ झटक दिया इस बार । जय ने फिर कोशिश की तो कविता ने फिर से एक थप्पड़ मारा उसे। इसके बाद जय ने कविता के खुले हुए बाल को खींच के पकड़ लिया और कविता के चेहरे को ऊपर उठाया और एक थप्पड़ उसके गाल पर मारा। कविता के गाल लाल हो गए पर उसने कुछ नही किया। अब जय ने कविता के चादर को उसके बदन से अलग किया, इस बार कविता ने कोई विरोध नहीं किया। अब कविता पूरी नंगी हो चुकी थी अपने छोटे भाई के सामने। उसकी आंखें अनायास ही बंद हो गयी।
खामोशी में भी एक धुन होती है। वो धुन बिना कोई शोर के बहुत कुछ कह जाती है। अब कुछ लोग सोचेंगे कि खामोशी में कौन सी धुन होती है और वो क्या कह जाती है?? इस सवाल का जवाब बस वो दे सकता है जिसने उस खामोशी के पल को जिया है।सवेरे का अस्तित्व सिर्फ रात से है। अगर रात ही ना हो तो सवेरे की अहमियत खत्म हो जाती है। अगर हम विज्ञान को हटा दे तो ये पूछना की सवेरा क्यों होता है या रात ही क्यों नही रहती, ये सवाल बेकार हैं या इसके उलट। ठीक वैसे ही जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जिसे बस जी लेना जरूरी होता है उनका मतलब बस होने से है, उसमे गलत या सही की कोई गुंजाइश नहीं होती।
शायद वही पल अभी कविता और जय के जीवन मे आया था। 21 वर्षीय जय इस वक़्त अपनी 26 वर्षीय दीदी के साथ पूरा नंगा खड़ा था। कविता शायद पहली बार किसी मर्द के सामने नंगी बैठी थी। जय ने कविता के हुश्न को अब तक कपड़ों में ढके हुए देखा था पर इस वक़्त कविता बिल्कुल अपने जन्म के समय के आवरण में थी अर्थात निर्वस्त्र। जय ने कविता को बालों से कसकर पकड़ रखा था। उसने कविता के चेहरे को देखा कविता की आंखे बंद थी। उसकी पलकें घनी थी और आंखों में काजल लगा हुआ था। उसके भौएँ बनी हुई थी, गाल भरे हुए थे एक दम गोरे। होंठ गुलाबी थी जो बिना लिपस्टिक के भी मदमस्त लग रहे थे। उसके होंठ कांप रहे थे। और बड़ी ही धीरे से वो अपने मुंह मे इकट्ठा हुए थूक को निगल रही थी। उसकी सुराहीदार गर्दन की चाल थूक गटकने की वजह से मस्त लग रही थी। उसका भाई जय अपनी बहन के इस रूप को देखकर पागल हो रहा था। वो भी बड़ी आराम से गले से थूक घोंट रहा था ताकि आवाज़ ना हो जाये।
जय ने झुककर कविता के होंठों के करीब अपने होंठ लाये और उसके होंठो से अपने होंठ चिपका दिए। जैसे चिंगारियाँ फूटी दोनों के होंठ मिलने से । जय ने कविता के होंठों को पूरा अपने मुंह में लिया हुआ था। कविता के होंठ हल्के मोटे थे , जिसे जय चूस रहा था। उसके होंठों का सारा रस लगातार पी रहा था। फिर कविता के मुंह में उसने अपने जीभ को घुसा दिया। कविता ने कोई प्रतिरोध नही किया, अपितु उसके जीभ को चूसने लगी। दोनों भाई बहन बिल्कुल किसी प्रेमी युगल की तरह काम मे लिप्त होने लगे थे।
जय ने कविता को फिर बिस्तर पर लिटा दिया, और जो नाईट बल्ब की मद्धिम रोशनी थी उसे बंद कर दिया । कविता को महसूस हुआ कि जय ने लाइट बंद कर दी है। उसने आंखें खोली, तो अंधेरा था। पर तभी जय ने बड़ी CFL लाइट जलाई, जिसकी रोशनी में दोनों के नंगे बदन नहा गए। कविता ने आंखों पर अपने हाथ रख लिए। और दूसरे से अपनी जवानी यानी चुचियाँ और बुर को ढकने की व्यर्थ प्रयास करने लगी। जय ने अपनी गंजी उतार फेंकी थी और बॉक्सर तो वो पहले ही उतार चुका था। वो बिस्तर पर कविता के बाजू में लेट गया। उसने कविता के अथक असफल प्रयास को अंत कर दिया जब उसने कविता के हाँथ जिससे वो अपने बुर और चुचियाँ ढकना चाह रही थी उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया और किनारे दबा दिया।
कविता के 26 साल का यौवन अब अपने भाई के सामने बिल्कुल साफ नंगा था। कविता की चुचियाँ बिल्कुल दूधिया थी और उस पर हल्के भूरे रंग के चूचक मुंह मे लिए जाने के लिए बिल्कुल वैसे तने थे जैसे बारिश के बाद कुकुरमुत्ते खड़े हो जाते हैं। चुचियों कि शेप बिल्कुल आमों की तरह थी। इन आमों को अब तक किसीने नहीं चूसा या चबाया था। जो पर्वत के शिखर की तरह कविता के सीने से लटक रहे थे। जय ने बेसब्री नहीं दिखाई बल्कि कविता के जिस्म को आंखों से पी रहा था।
कविता ने हिम्मत जुटाई और हल्के आवाज़ में कहा कि, लाइट बंद कर दो।
जय ने उसकी आँखों से उसके हाथ को हटाते हुए, बोला क्यों दीदी??
कविता ने आंखें बंद करके कहा, शर्म आ रही है। उसकी आवाज़ में कंपन थी।
जय ने कहा, दीदी आंखें खोलो और हमको देखो सारी शर्म चली जायेगी। आंखे खोलो ना, देखो हमको तो कोई शर्म नही आ रही हैं।
कविता ने फिर भी आंखे नहीं खोली। जय ने ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया बल्कि वो अपनी दीदी के यौवन को फिर से घूरने लग गया। उसने फिर कविता के पेट को सहलाते हुए चूमा। गुदगुदी की वजह से कविता कांप रही थी। उसने कविता की नाभि में भी चुम्मा लिया और उंगली से उसके कमर और नाभि के आसपास के हिस्से को छेड़ रहा था। कविता इस गुदगुदी से सिहरकर कांप जाती थी। फिर उसने अपनी जवान दीदी के उस हिस्से को देख जहां से इंसान पैदा होता है। यानी कविता की योनि, बुर, चूत, फुद्दी, पुसी, मुनिया इत्यादि। कविता के बुर पर हल्के कड़े छोटे बाल थे, ऐसा लगता था मानो 3 4 दिन पहले ही साफ किये हों। जिससे उसकी बुर का हर हिस्सा साफ दिख रहा था। बुर की लगभग 4 इंच की चिराई थी और रंग गहरा सावँला था।। बुर बिल्कुल फूली हुई थी, और चुदाई ना होने की वजह से अभी बुर की शेप बिल्कुल सही थी। बुर की पत्तियां हल्की बाहर झांक रही थी।उससे एक अजीब सी महक आ रही थी। जो उस के बुर के रस की थी। बुर से लसलसा पदार्थ चिपका हुआ था।