अगली सुबह हम निकल पड़े | हम उनके घर के ड्राइवर के साथ कार में ट्रेन स्टेशन पहुँच गए । ट्रेन पहले से प्लेटफार्म पर खड़ी थी । हमने प्रथम श्रेणी के डिब्बे में आरक्षण करवा रखा था और हम उस पर चढ़ गए। हमारा कंपार्टमेंट के अगले दरवाजे पे ही शौचालय था। चूंकि हमारा अंतिम डिब्बे था इसलिए काफी छोटा था | नीचे एक तरफ एक लंबी सीट और ऊपर एक लंबी बर्थ थी । एक तरफ एक छोटी सी खिड़की थी और उसके विपरीत तरफ एक डिब्बे का दरवाजा था । चूंकि डिब्बे का फर्श बहुत गंदा था, इसलिए ड्राइवर ने हमारे सामान को ऊपरी बर्थ पर रखा, जिससे बर्थ भर गया। तो नीचे की एकमात्र सीट मेरे और संगीताई के लिए रह गयी थी | ट्रेन ने सीटी दी और ड्राइवर नीचे उतर गया | जब ट्रेन चल पड़ी और ड्राइवर आँखों से औझल हो गया तब संगीता दी के चहेरे पे पहली बार मुस्कराहट दिखी |
संगीता दी अंगड़ाई लेते हुए अपने दोनों हाथों को फैलाया और मुस्कुराते हुई बोली “भाई ! क्या मैं इन कपड़ों को बदल दूं ”
“ठीक है, संगीता दी ! तुम कपड़े बदल लो, मैं टॉयलेट हो कर आता हूँ | दरवाजा अंदर से बंद कर लो और मैं बाहर खड़ा रहूँगा । जब तुम्हारा काम हो जाए तो तुम दरवाजा खोल देना,” मैंने उससे कहा।
“ओ.के. मेरे प्यारे भाई!” उसने मस्ती भरे लहज़े से कहा ।
संगीता की तो बोली ही बदल गयी थी | जब तक वह घर से निकल कर ट्रेन में नहीं चढ़ी थी, तब तक संगीता बहुत चुप-२ और शांत थी । वह बात नहीं कर रही थी या चेहरे पर कोई हावभाव नहीं दिखा रही थी । और अब, किसी चंचल हसीना कि तरह सब बंधन से मुक्त हो गई थी । मैं टॉयलेट से आया और डिब्बे के दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया । थोड़ी देर बाद संगीता ने दरवाजा खोला । मैंने अंदर आकर दरवाजा बंद कर दिया। जैसे ही मैंने मुड़कर संगीता दी को देखा तो मैं चकित रह गया ।